अध्याय 6 जैव प्रक्रम (Life Processes)
Science Class 10 Hindi Medium
अध्याय 6 जैव प्रक्रम (Life Processes)
जैव प्रक्रम (Life Processes):
वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं, उन्हें जैव प्रक्रम कहते
हैं।
जैव प्रक्रम के अन्तर्गत जीवन का अनुरक्षण करने वाले पोषण, श्वसन, परिवहन, उत्सर्जन,
नियंत्रण, वृद्धि, गति,
प्रजनन आदि प्रक्रम समाहित किए जाते हैं। अतः जीवन को बनाये रखने के
लिए जीवधारियों द्वारा निष्पादित मूल क्रियाएँ ही जैव प्रक्रम कहलाती हैं।
पोषण (Nutrition)-
वह प्रक्रम जिसमें जीवधारी अपने पर्यावरण से पोषकों का
अन्तर्ग्रहण करता है पचे भोजन का अवशोषण एवं शरीर द्वारा अनुरक्षण के लिए उसका
उपयोग करता है पोषण कहलाता है।
पोषण की विभिन्न विधियां-
(i)
स्वपोषी पोषण (autotrophic
nutrition)
स्वपोषी पोषण (autotrophic nutrition)
पोषण का वह तरीका जिसमें जीव अपने आस-पास के वातावरण में
उपस्थित सरल अजैव पदार्थों जैसे : CO2, पानी और सूर्य के प्रकाश से अपना
भोजन स्वयं बनाता है। उदाहरण : हरे पौधे।
परपोषी पोषण विषमपोषी पोषण (Heterotrophic Nutrition)
पोषण का वह तरीका जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकता, बल्कि अपने भोजन के लिए
अन्य जीवों पर निर्भर होता है। उदाहरण : मानव व अन्य जीव।
प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis):
प्रकाश संश्लेषण एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा
हरे पौधे, सूर्य
प्रकाश तथा क्लोराफिल की उपस्थिति में, कार्बन डाई आक्साइड
तथा जल को कच्ची सामग्री के रूप में प्रयोग करके अपना भोजन स्वयं बनाते हैं।
इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन उप-उत्पाद के रूप में निकलती है।
प्रकाश संश्लेषण ही ऐसी एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सौर ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा
में परिवर्तित होती है।
प्रकाश संश्लेषण की सकल रासायनिक अभिक्रिया निम्नलिखित हैं।
प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची
सामग्री (Raw Material) :
प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया करने के लिए पौधों को कार्बन डाई
आक्साइड (CO2 ) जल (H2O) प्रकाश
व क्लोरोफिल की आवश्यकता होती है। प्रकाश, प्रकाश संश्लेषण
प्रक्रिया के लिए ऊर्जा देता है।
(i)
क्लोरोफिल (Chlorophyll):
यह प्रक्रिया पत्तियों की कोशिकाओं में उपस्थित हरित लवक (Chloroplast)
में होती है। पौधों का हरा रंग क्लोरोफिल के कारण होता है।
क्लोरोफिल हरित लवक में होता है। यह प्रकाश को सोख लेता है।
(ii)
सूर्य प्रकाशः क्लोरोफिल सूर्य प्रकाश को सौर ऊर्जा के रूप में अवशोषित करता है।
(iii)
कार्बन डाइ ऑक्साइड और जल: क्लोरोप्लास्ट में कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा
जल मिलकर बहुत से एंजाइमों की सहायता से शर्करा बनाते हैं जो बाद में स्टार्च में
परिवर्तित होती है। प्रकाश संश्लेषण में दौरान उत्पादित आक्सीजन रन्ध्रों (Stomata) के द्वारा वायुमंडल
में विसरित होती है।
प्रकाश संश्लेषण के दौरान निम्नलिखित
घटनाएं होती हैं
(i)
क्लोरोफिल द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना।
(ii)
प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन तथा
ऑक्सीजन में अपघटन।
(iii)
कार्बन डाइऑक्साइड का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन।
नोट:
यह आवश्यक नहीं है कि ये चरण तत्काल एक के बाद दूसरा हो।
उदाहरण के लिए, मरुद्भिद पौधे रात्रि में कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं और एक मध्यस्थ
उत्पाद बनाते हैं। दिन में क्लोरोफिल ऊर्जा अवशोषित करके अंतिम उत्पाद बनाता है।
क्लोरोप्लास्ट :
यदि हम ध्यानपूर्वक एक पत्ती की अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मदर्शी
द्वारा अवलोकन तो हमें कुछ कोशिकाओं में हरे रंग के बिंदु दिखाई देते हैं।
ये हरे बिंदु कोशिकांग हैं जिन्हें क्लोरोप्लास्ट कहते हैं इनमें क्लोरोफिल होता
है। प्रकाश संश्लेषण के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है।
पौधे कार्बन डाइऑक्साइड कैसे प्राप्त करते हैं।
रंध्र पौधे की पत्ती की सतह पर सूक्ष्म छिद्र होते हैं।
प्रकाशसंश्लेषण के लिए गैसों का अधिकांश आदान-प्रदान इन्हीं छिद्रों के द्वारा
होता है।
इन रंध्रों से पर्याप्त मात्रा में जल की भी हानि होती है अतः
जब प्रकाशसंश्लेषण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड की आवश्यकता नहीं होती तब पौधा इन
छिद्रों को बंद कर लेता है। छिद्रों का खुलना और बंद होना द्वार कोशिकाओं
का एक कार्य है। द्वार कोशिकाओं में जब जल अंदर जाता है तो वे फूल जाती हैं और
रंध्र का छिद्र खुल जाता है। इसी तरह जब द्वार कोशिकाएँ सिकुड़ती हैं तो छिद्र बंद
हो जाता है।
वातरंध्र (या लैन्टिसेल) :
वातरंध्र
(या लैन्टिसेल) तनों तथा जड़ों की बाह्य त्वचा में कुछ सूक्ष्म छिद्र होते हैं, जिन्हें वातरंध्र कहते
हैं। इनकी कोशिकाओं के बीच पर्याप्त अन्तःकोशिकीय स्थान होता है जिसके द्वारा
पर्यावरण तथा कोशिकाओं में गैसों का विनिमय होता है।
विषमपोषी पोषण (विषमः भिन्न, पोषीः
भोजन) (Heterotrophic Nutrition)
ऐसे जीव जो अपने भोजन के लिए दूसरे, जीवों पर निर्भर करते हैं
विषम पोषी कहलाते हैं। उनकी पोषण विधि को विषमपोषी पोषण कहते हैं।
विषमपोषी पोषण विभिन्न प्रकार के होते हैं:
(a)
मृतपोषी पोषण (Saprophytic Nutrition): वह पोषण की वह विधि है
जिसमें जीवधारी पोषको की प्राप्ति मृत एवं क्षय हो रहे जैव पदार्थों से करते हैं।
उदाहरण-कवका
(b)
परजीवी पोषण (Parasitic Nutrition): यह पोषण की वह विधि है
जिसमें जीवधारी अन्य सजीव से पोषण प्राप्त करते हैं एवं उसे नुकसान भी पहुंचाते हैं।
परजीवी पोषण में जो जीव खाद्य प्राप्त करता - है, वह परजीवी कहलाता है तथा
जिस जीव से पोषण प्राप्त करता है वह पोषी कहलाता है। उदाहरण अमरबेल, कुछ कवक, प्लैज्मोडियम तथा गोलकृमि।
(c)
प्राणिसमभोजी पोषण (Holozoic Nutrition): यह पोषण की वह विधि है
जिसमें जीव जटिल जैव पदार्थ .. का अंतर्ग्रहण, पाचन एवं
अवशोषण करता है। उदाहरण-उच्च श्रेणी के जीव जैसे मनुष्य, अमीबा
एवं मेंढक।
जीव अपना पोषण कैसे करते हैं?
अमीबा में पोषण
प्रोटोजोआ संघ का यह प्राणी जल में पाया जाता है। अमीबा के
एककोशिकीय होने के कारण पोषण के लिए अमीबा में पाचन अंग अनुपस्थित होते हैं। अमीबा
जैसे अमीबा में पोषण को निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है
(i)
अन्तःग्रहण : अमीबा भोजन के संपर्क में आते
ही इसे चारों ओर से घेर लेता है। बाद में कूट पाद में कण के विपरीत किनारे संगलित
होकर खाद्य रिक्तिका बनाते हैं और इसे कोशिका के जीवद्रव्य में डाल देते हैं।
(ii)
पाचन:
खाद्य रिक्तिका में ट्रिप्सिन पेप्सिन और एमाइलेज की मदद से अन्त:कोशिकीय पाचन
संपन्न होता है।
(iii)
अवशोषण: खाद्य रिक्तिका में पचा हुआ भोजन एन्डोप्लाज्मा में विसरित हो जाता
है।
(iv)
स्वांगीकरण: अवशोषित पदार्थ जीवद्रव्य का हिस्सा बन जाते हैं, इसे स्वांगीकरण कहते हैं।
(v)
बहिपोषण: अपाचित खाध शारीरिक सतह द्वारा अमीबा के शरीर के बाहर निकाल दिया
जाता है।
पैरामीशियम में पोषण
पैरामीशियम भी एककोशिक जीव है, इसकी कोशिका का एक निश्चित आकार होता है तथा
भोजन एक विशिष्ट स्थान से ही ग्रहण किया जाता है। भोजन इस स्थान तक पक्ष्याभ की
गति द्वारा पहुँचता है जो कोशिका की पूरी सतह को ढके होते हैं।
मनुष्य में पोषण प्रक्रिया के चरण
संपूर्ण
पोषण प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण होते हैं: अंतर्ग्रहण, पाचन, अवशोषण,
स्वांगीकरण तथा बहिःक्षेपण
a.
अंतर्ग्रहण (Ingestion) तथा पाचन (Digestion)
मुख
द्वारा आहार को भीतर ले जाना अंतर्ग्रहण कहलाता है। पोषण प्रक्रिया जो आहार हम
खाते हैं वह जटिल रूप में होता है हमारी शरीर की कोशिकाएं इनका ज्यों का त्यों
उपयोग नहीं कर सकती। जटिल आहार पदार्थ का लघुतर इकाइयों में टूटकर इस प्रकार
परिवर्तित होना कि वे कोशिकाओं द्वारा अवशोषित हो सकें, पाचन कहलाता है। आहार का पाचन मुख में
ही आरंभ हो जाता है और छोटी आंत में पूरा होता है।
(i)
मुख (Month): कार्बोहाइड्रेट जैसे स्टार्च
विखंडित होने पर पचाए जाते हैं। मुख में लाला ग्रंथि से एक रस निकलता है जिसे
लालारस या लार कहते हैं। लार में एक एंजाइम लार एमाइलेज (Salivary amylase)
होता है जो भोजन में मिलकर स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित करता
है। यह खाने को मुलायम करता है जिससे उसको निगलना सुगम हो जाता है।
(ii)
ग्रसिका (Esophagus) (Gullet) (Food Pipe): आहार नाल के इस भाग में पाचन नहीं होता
है, ग्रसिका या भोजन नली की दीवारों की पेशिओं के क्रमवत
फैलने व सिकुड़ने से खाना आमाशय में धकेल जाता है। पेशियों के फैलने व सिकुड़ने की
गति को क्रमाकुंचन (Peristalsis) कहते हैं जिसके कारण भोजन
आहार नाल में आगे की तरफ खिसकता है।
(iii)
आमाशय (Stomach): आमाशय कुछ अन्य पेशीय अंग हैं इसकी भित्तियों में
मौजूद जठर ग्रंथियों से (Gastricglands) जठर रस (Gastric juice) निकलता है जिसमें हाइड्रोक्लोरिक
एसिड (HCl) , एंजाइम पेप्सिनोजन तथा श्लेष्मा होते हैं।
हाइड्रोक्लोरिक एसिड पेप्सिनोजन को क्रियाशील (Activate) करते
हैं तथा जीवाणुओं को नष्ट करते हैं। पेप्सिनोजन क्रियाशील होकर पेप्सिन में बदलता
है। एंजाइम पेप्सिन प्रोटीन के अणुओं को छोटे छोटे टुकड़े जिन्हें पेप्टोनों (Peptones)
कहते हैं, में बदल देते हैं। सामान्य
परिस्थितियों में श्लेष्मा आमाशय के आंतरिक आस्तर की अम्ल से रक्षा करता है।
(iv)
छोटी आंत (Small intestine) या क्षुद्रांत्र: आमाशय से भोजन डुओडिनम (ग्रहणी) में आता है, यह भाग छोटी आंत का ऊपरी हिस्सा है।
इसमें वसा का पायसीकरण (emulsification) होता है जिसमें वसा छोटे छोटे वसा बूंद (Fat droplets) में टूट जाती है। जिसमें यकृत (liver) से स्त्राविस
पित्त रस (Bile juice) सहायता करता है। पित्त रस पित्ताशय (Gall
bladder) में भंडारित होता हौ। पित्त रस में कोई पाचक एंजाइम नहीं
होता है। परंतु यह माध्यम को क्षारीय बनाता है। जिसके कारण अग्न्याशय से
स्त्रावित्त एंजाइम्स के क्रियाशील होते हैं क्योंकि इनके क्रियाशील होने के लिए
क्षारीय माध्यम की आवश्यकता होती है। अग्न्याशयी रस में (Pancreatic Juice)
तीन एंजाइम्स होते हैं।
ट्रिप्सिन (Trpsin) : यह एंजाइम पेप्टोन्स तथा प्रोटीओजेस (Proteases) को
छोटे पेप्टाइड्स (Peptides) में बदलते हैं।
एमाइलेज (Amylase) : यह स्टार्च को माल्टोज में बदलता है।
लाइपेज (Lipase) : यह वसा को वसा अम्ल (Fatty acide) व ग्लिसरोल में
बदलता है।
छोटी आंत
में भोजन का पाचन पूरी तरह हो जाता है प्रोटीन अमीनो एसिड, कार्बोहाइड्रेट, का
ग्लूकोज में तथा वसा, वसा अम्ल व ग्लिसरोल में परिवर्तित हो
जाते हैं। छोटी आंत की भीतरी सतह पर उंगली जैसे प्रवर्ध होते हैं जिन्हें आंत्रांकुर
या दीर्घरोम (Villi) कहते हैं। ये प्रवर्ध
पचे हुए भोजन के लिए अधिक सतह प्रदान करते हैं ताकि वह रक्त वाहिकाओं की दीवारों (Blood
capillaries) में अवशोषित हो सके। तदुपरांत रक्त अवशोषित भोजन को
शरीर के विभिन्न भागों में ले जाता है तथा अनपचा भोजन बड़ी आंत में पहुंचा दिया
जाता है।
(v)
बड़ी आंत (Large intestine) : शरीर का यह भाग अनपचे भोजन से अधिकतर जल को सोख लेता है और शेष बचा ठोस
भाग स्नेहल होकर विष्ठा बन जाता है। विष्ठा बड़ी आंत के निचले भाग मलद्वार (Rectum)
में पहुंचता है। यहां से इसे शरीर गुदा (Anus) द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
ख. अवशोषण (Absorption) : आंत्राकुर में उपस्थित रक्त वाहिकाएं
पचे भोजन को अवशोषित कर लेती है तथा इसे सभी कोशिकाओं में पहुंचा देती है।
ग. स्वांगीकरण (Assimilation) : कोशिकाओं में पहुंचाया गया अवशोषित भोजन
ऊर्जा उत्पन्न करने तथा कोशिका के पदार्थों को बनाने में काम आता है। इसे
स्वांगीकरण कहते हैं।
घ. बहिः क्षेपण (Egestion): वह प्रक्रिया जिसमें अनपचे भोज्य पदार्थ
अर्थात अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है बहिःक्षेपण कहलाती
है। अपशिष्ट पदार्थ का बहिःक्षेपण गुदा अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
दंतक्षरण
दंतक्षरण
या दंतक्षय इनैमल तथा डैंटीन के शनैः-शनैः मृदुकरण के कारण होता है। इसका प्रारंभ
होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते हैं। तब इनैमल मृदु या
बिखनिजीकृत हो जाता है। अनेक जीवाणु कोशिका खाद्यकणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक
कर दंतप्लाक बना देते हैं। प्लाक दाँत को ढक लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन
करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है। इससे पहले कि जीवाणु अम्ल पैदा करे
भोजनोपरांत दाँतों में ब्रश करने\ से प्लाक हट सकता है। यदि अनुपचारित रहता है तो सूक्ष्मजीव मज्जा में
प्रवेश कर सकते हैं तथा जलन व संक्रमण कर सकते हैं।
NCERT प्रश्न पेज न. 111
1. स्वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में क्या अंतर है?
उत्तर: स्वयंपोषी पोषण - पोषण का वह तरीका जिसमें जीव अपने
आस-पास के वातावरण में उपस्थित सरल अजैव पदार्थों जैसे CO2, पानी और सूर्य के प्रकाश से अपना भोजन स्वयं बनाता है। उदाहरण : हरे पौधे।
विषमपोषी
पोषण - पोषण का वह तरीका जिसमें जीव अपना भोजन
स्वयं नहीं बना सकता, बल्कि अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर
निर्भर होता है। उदाहरण : मानव व अन्य जीव।
2. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री पौधा कहाँ से प्राप्त करता है?
3. हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है?
4. पाचक एंजाइमों का क्या कार्य है?
उत्तर: पाचन प्रक्रिया में बहुत सारे एंजाइम्स की
आवश्यकता होती है जो पाचक तंत्र में उपस्थित पाचक अंगों द्वारा स्त्रावित पाचक
होते हैं। वे जटिल अणुओं को सरल अणुओं में बदलते हैं। एंजाइम वे रसायन हैं जो
कोशिकाओं में होने वाली रासायनिक अभिक्रिया की दर को तीव्र करते हैं, सभी एंजाइम जटिल प्रोटीन होते हैं जो
रासायनिक अभिक्रिया के दौरान अपरिवर्तित रहते हैं। इसी कारण, इन्हें बार-बार उपयोग में लाया जा सकता है।
5. पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुद्रांत्र को कैसे अभिकल्पित किया
गया है?
उत्तर: पचे हुए भोजन का क्षुद्रांत्र में अवशोषण होता
है। क्षद्रांत्र की दीवारों पर अंगुली के समान प्रवर्ध पाए जाते हैं, जिन्हें दीर्घ रोम कहते हैं। ये अवशोषण
के सतही क्षेत्रफल को बढ़ाते हैं। इनमें रुधिर वाहिकाओं की अधिकता होती है जिससे
भोजन अवशोषित होकर शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचता है। कोशिकाओं में इस
अवशोषित भोजन द्वारा नये ऊतकों का निर्माण तथा पुराने ऊतकों की मरम्मत की जाती है।
मनुष्य में श्वासोच्छवास व श्वसन
श्वसन को हम
दो चरणों में बांट सकते हैं:श्वासोच्छवास में दो प्रक्रियाएं शामिल हैं। अंतः
श्वसन (Inhalation) इसमें
ऑक्सीजन मिश्रित वायु को अन्दर लिया जाता है। उच्छश्वसन (Exhalation) इसमें भोजन के ऑक्सीकरण के दौरान उत्पन्न कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर
निकाला जाता है।
कोशिकीय
श्वसन -
पोषण
प्रक्रम के दौरान ग्रहण की गई खाद्य सामग्री का उपयोग कोशिकाओं में होता हैं जिससे
विभिन्न जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है। ऊर्जा उत्पादन के लिए
कोशिकाओं में भोजन के विखंडन को कोशिकीय श्वसन कहते हैं।
श्वसन श्वासोच्छवास से भिन्न है।
श्वासोच्छवास
एक शारीरिक प्रक्रिया है जिसमें विसरण प्रक्रिया द्वारा जीव तथा वातावरण के बीच
गैस विनिमय होता है (ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई ऑक्साइड गैस)। दूसरी तरफ श्वासोच्छवास
फेफड़ों में होता है। श्वसन क्रिया में गैस विनिमय के साथ साथ भोजन का ऑक्सीकरण
होकर ऊर्जा निकलना भी आता है तथा श्वसन कोशिकाओं में होता है।
ग्लूकोज़
के ऑक्सीकरण से भिन्न जीवों में ऊर्जा प्राप्त करने के विभिन्न पथ हैं
पहले
कोशिकाद्रव्य में ग्लूकोज का विखंडन पायरुवेट में होता है। इस प्रक्रिया को
ग्लूकोलाइसिस कहते हैं तथा यह सभी जीवों में होती है। आगे पायरुवेट का विखंडन
निम्न प्रकार से होता है-
(i)
O2, की अनुपस्थिति में पायरुवेट एथेनॉल तथा CO2, में टूट जाता है तथा कुछ मात्रा में ऊर्जा भी निकलती है। यह प्रक्रिया
यीस्ट में होती है।
(ii)
O2, के अभाव में पायरुवेट का विखंडन लैक्टिक अम्ल में होता है तथा कुछ मात्रा
में ऊर्जा भी विमुक्त होतीहै। यह प्रक्रिया हमारी पेशी कोशिका में होती है।
(iii)
O2, की उपस्थिति में पायरुवेट का विखंडन CO2., जल में होता है तथा अधिक मात्रा में ऊर्जा भी विमुक्त होती है। यह
प्रक्रिया माइटोकॉन्ड्रिया में होती है एवं सभी वायवीय जीवों में पायी जाती है।
कोशिकीय
श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा तत्काल ही ए.टी.पी. (ATP) नामक अणु के संश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है जो
कोशिका की अन्य क्रियाओं के लिए ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है। ए.टी.पी. के विखंडन
से एक निश्चित मात्रा में ऊर्जा मोचित होती है जो कोशिका के अंदर होने वाली
आंतरोष्मि (endothermic) क्रियाओं का परिचालन करती है।
Note:
ए.टी.पी. अधिकांश कोशिकीय प्रक्रमों
के लिए ए.टी.पी ऊर्जा मुद्रा है। श्वसन प्रक्रम में उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग
ए.डी.पी. (ADP) तथा अकार्बनिक फॉस्फेट से ए.टी.पी. अणु बनाने में किया
जाता है।
आंतरोष्मि प्रक्रम (endothermic processes) कोशिका के अंदर तब इसी ए.टी.पी. का
उपयोग क्रियाओं के परिचालन में करते हैं। जल का उपयोग करने के बाद ए.टी.पी. में जब
अंतस्थ फॉस्फेट सहलग्नता खंडित होती है तो 30.5 kJ/ mol के
तुल्य ऊर्जा मोचित होती है।
अनॉक्सीश्वसन (Anaerobic
Respiration) (अवायवीय) तथा ऑक्सीश्वसन (Aerobic
Respiration) (वायवीय)
में अंतर:
अनॉक्सीश्वसन (Anaerobic Respiration) (अवायवीय)
|
ऑक्सीश्वसन (Aerobic Respiration) (वायवीय)
|
||
1
|
ऑक्सीजन (O2)
की अनुपस्थिति में श्वसनीय पदार्थों का अपूर्ण आक्सीकरण होता है।
|
1
|
O2,
की उपस्थिति में होता है। श्वसनीय पदार्थों का पूर्ण आक्सीकरण
होता है।
|
2
|
कम ऊर्जा की प्राप्ति (2 ATP)
|
2
|
अधिक ऊर्जा की प्राप्ति (36–38 ATP) होती है।
|
3
|
अन्तिम उत्पाद कार्बनिक यौगिक जैसे – एल्कोहॉल
|
3
|
अन्तिम उत्पाद के रूप में CO2, व जल होते हैं।
|
4
|
उदाहरण : निम्न पादपों, बैक्टीरिया, कवक में यह श्वसन पाया
जाता है।
|
4
|
उदाहरण : उच्चतर पादपों तथा जीवों के ऑक्सीश्वसन होता है।
|
5
|
5
|
अंतः श्वसन व उच्छवसन
में अंतर:
अंत: श्वसन के दौरान
वृक्षीय गुहा फैलती है। पसलियों से संलग्न पेशियां सिकुड़ती हैं। वक्ष ऊपर और बाहर
की ओर गति करता है। गुहा में वायु का दाब कम हो जाता है और वायु फेफड़ों में भरती
है।
उच्छवसन के दौरान वृक्षीय
गुहा अपने मूल आकार में वापिस आ जाती है। पसलियों की पेशियां शिथिल हो जाती हैं।
वक्ष अपने स्थान पर वापस आ जाता है। गुहा में वायु का दाब बढ़ जाता है और वायु (कार्बन
डाइऑक्साइड) फेफड़ों से बाहर हो जाती है।
मानव श्वसन तंत्र
1. मानव श्वसन तंत्र-मानव श्वसन
तंत्र नासाद्वार से आरम्भ होता है। नासाद्वार से वायु नासागुहा में प्रवेश करती
है। नासागुहा में वायु को गर्म व नम किया जाता है तथा उसमें उपस्थित धूलकण
श्लेष्मा द्वारा रोक लिए जाते हैं।
2. स्वर यंत्र (लैरिंक्स) - इसे कंठ भी
कहते हैं। यह भोजन नली की प्रतिपृष्ठ सतह पर स्थित होता है। इसकी . गुहा (कंठ कोष)
आगे की तरफ ग्लॉटिस छिद्र द्वारा ग्रसनी से जुड़ती है। इसके ऊपर एपिग्लॉटिस नामक एक
उपास्थित होती है, जो भोजन करते समय ग्लॉटिस को बंद कर देती है।
3. श्वसन नली (Trachea)- यह लगभग 12 सेमी.
लम्बी उपास्थि की एक नली है जो वायु को स्वर यंत्र से श्वसनी तक लेकर जाती है।
4. श्वसनी-श्वसन नली
वक्षीय गुहा में जाकर दो शाखाओं में बंट जाती है, जिन्हें श्वसनी कहते
हैं। श्वसनी से होकर वायु फेफड़ों तक जाती है।
5. फुफ्फुस-प्रत्येक
श्वसनी अपनी तरफ के फेफड़ों में खुलती है। फेफड़ों में प्रवेश करने के पश्चात्
श्वसनी अनेक शाखाओं में बँट जाती है। इन शाखाओं के शीर्ष पर छोटे-छोटे कोष्ठक होते
हैं, जिन्हें वायु कूपिकाएँ - कहते हैं। श्वसनी से वायु इन्हीं कूपिकाओं में भर
जाती है। इन कूपिकाओं की भित्तियाँ अत्यंत पतली होती . हैं तथा, कूपिकाओं के चारों ओर रक्त कोशिकाएं होती हैं। वायु का कूपिकाओं की पतली
भित्तियों के द्वारा आदान-प्रदान होता है। डायाफ्राम तथा पसलियों के बीच जुड़ी
पेशियों के संकुचन के कारण पसलियों की ऊपरिमुखी एवं बहिर्मुखी गति होती है तथा
परिणामस्वरूप, वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है। इससे वायु का
दबाव कम हो जाता है तथा बाह्य वायु नासाद्वार, श्वासनली एवं
श्वसनी से होती हुई फुप्फुस में भर जाती है, यह क्रिया अन्तःश्वसन
कहलाती है। कूपिकाओं में रक्त कोशिकाएँ गैसीय विनिमय करती हैं। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड
युक्त वायु पेशीय शिथिलन के द्वारा श्वास के साथ बाहर छोड़ दी जाती है, यह क्रिया निःश्वसन कहलाती है।
पेज न 116
1. श्वसन के लिए ऑक्सीजन
प्राप्त करने की दिशा में एक जलीय जीव की अपेक्षा स्थलीय जीव किस प्रकार लाभप्रद
है?
उत्तर: जो जीव जल में रहते हैं वे जल
में विलेय ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। क्योंकि जल में विलेय ऑक्सीजन की मात्रा वायु
में ऑक्सीजन की मात्रा की तुलना में बहुत कम है, इसलिए जलीय जीवों की
श्वास दर स्थलीय जीवों की अपेक्षा द्रुत होती है। उदाहरण के लिए मछली अपने मुँह के
द्वारा जल लेती है तथा बलपूर्वक इसे क्लोम तक पहुँचाती है जहाँ विलेय ऑक्सीजन
रुधिर ले लेता है।
स्थलीय जीव श्वसन के लिए वायुमंडल की
ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। इन जीवों में श्वसन अंग फेफड़ा होता है जिसकी क्षमता
क्लोम से अधिक होती है। इसलिए इन जीवों की श्वास दर भी कम होती है। अत: जलीय जीव
की अपेक्षा स्थलीय जीव किस प्रकार लाभप्रद है।
2. ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से
भिन्न जीवों में ऊर्जा प्राप्त करने के विभिन्न पथ क्या हैं?
3. मनुष्यों में ऑक्सीजन तथा
कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कैसे होता है?
4. गैसों के विनिमय के लिए
मानव-फुफ्फुस में अधिकतम क्षेत्रफल को कैसे अभिकल्पित किया है?
उत्तर: श्वसन मार्ग से ऑक्सीजन
फुप्फुस में जाती है। फुप्फुस के अन्दर का मार्ग छोटी-छोटी श्वसनी नलिकाओं में
विभाजित हो जाता है; जिनके सिरों पर छोटे-छोटे कोष्ठक होते हैं,
इन्हें कूपिकाएँ कहते हैं। कूपिकाएँ एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे
गैसों का विनिमय होता है। कूपिकाओं के चारों ओर रक्त कोशिकाओं का जाल सा होता है,
जिनका क्षेत्रफल लगभग 80 m2 होता
है। इस विशाल सतह के कारण ही गैसों का विनिमय दक्षतापूर्वक हो पाता है।
मानव में परिसंचरण
तंत्र
परिसंचरण तंत्र को दो तंत्रो में
विभाजित किया जाता है
(i)
रूधिर दोहरा परिसचरण तंत्र- इस तंत्र
में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है
(क) रूधिर
(ख) हृदय
(ग) रूधिर वाहनियाँ
(ii)
लसीका तंत्र
(क)
रूधिर
रूधिर एक संयोजी ऊतक है जो समस्त शरीर
में परिसंचरित होता है। यह एक तरल माध्यम का बना होता है, जिसे
प्लाज्मा (Plasma) कहते हैं। प्लाज्मा में तीन प्रकार की
कोशिकाएं विद्यमान होती हैं। इन्हें लाल रूधिर कोशिका, श्वेत
रूधिर कोशिका और बिम्बाणु (प्लेटलेट्स) कहते हैं। रूधिर कोशिकाएं अस्थि मज्जा (Bone
marrow) में बनती हैं।
a.
लाल रूधिर कोशिका (Red blood cells
(RBC) या Erythrocytes) –
·
इनकी आकृति वर्तुलाकार होती है और इनमें
हीमोग्लोबिन नाम का लाल रंग का वर्णक होता है।
·
इनमें केन्द्रक नहीं पाया जाता।
·
ये ऑक्सीजन को ऊतकों तक पहुंचाती हैं तथा
कार्बन डाई आक्साइड को उनमें से वापस लाती है।
b. श्वेत रूधिर
कोशिका (White blood cell (WBC) या Leucocytes)
·
चूंकि इनमें कोई वर्णक नहीं होते अतः ये
रंगहीन होती है।
·
इनकी आकृति अनियमित होती है।
·
ये शरीर संक्रमण से बचाती हैं। इसके लिए यानी
वे रोगाणुओं को खा जाती है अथवा एन्टीबॉडी (Antibody) का निर्माण कर
उन्हें नष्ट कर देती हैं।
c. रूधिर
प्लेटलेट्स (Blood platelets, Thrombocytes)
·
ये कोशिकाओं के बहुत छोटे खंड होते है।
·
इनमें केन्द्रक नहीं होते।
·
ये रूधिर के स्कंदन (Clotting) में सहायता करते हैं।
रूधिर के कार्य:
रूधिर पोषक पदार्थों, ऑक्सीजन,
कार्बन डाई ऑक्साइड, हार्मोन्स और अपशिष्ट
पदार्थों को शरीर के उपयुक्त भागों तक ले जाना है। शरीर के भीतर पहुंचने वाली
औषधियों को भी रूधिर विभिन्न भागों में वितरित करता है।
(ख)
मानव हृदय (संरचना तथा क्रियाविधि )
हृदयः-1. मानव
का हृदय वक्षीय गुहा मे दोनो फफुफुसों के बीच अधर तल पर कुछ बाई ओर स्थित होता है।
2.यह गुलाबी रंग का शंख के आकार
का खोखला एंव मासल भाग है जो मनुष्य की मुट्ठी के माप का होता है।
आन्तरिक संरचनाः- मनुष्य का
हृदय चार कोष्ठों मे बंटा होता है, ऊपर के दो कोष्ठ आलिन्द तथा
नीचे के दो कोष्ठ निलय कहलाते है, निलय की दीवारे आलिन्द की
दीवारो की अपेक्षा मोटी भित्ती वाली होती है। प्रत्येक आलिन्द अपनी ओर के निलय में
आलिन्द निलय छिद्र द्वारा खुलता है इन छिद्रों मे कपाट पाये जाते हैं। बाँये
आलिन्द तथा बाँये निलय के बीच द्विवलनी कपाट दांऐ आलिन्द तथा दाए निलय के बीच
त्रिवलनी कपाट होता है।
कियाविधि:- हृदय के
दाये भाग में ऑक्सीजन रहित रक्त होता है जबकि बाये भाग में शुद्ध या ऑक्सीजनित
रक्त होता है। अंगो से ऑक्सीजन रहित रक्त महाशिरा द्वारा दाये आलिन्द में आता है,जो
कि इसमें संकुचन से दाये निलय में जाता है। जहां से रक्त शुद्ध या ऑक्सीजनित होने
के लिए दाये निलय में संकुचन से फुफ्फुसीय धमनी द्वारा फुफ्फुस मे चला जाता है।
इसके बाद फुफ्फुस शुद्ध या ऑक्सीजनित हुआ रक्त फुफ्फुसीय शिरा द्धारा बाये आलिन्द
में आता है। इसमे संकुचन से यह बाये निलय में चला जाता है,बाये
निलय में संकुचन से शुद्ध रक्त महाधमनी द्वारा अंगो को चला जाता है, इस प्रकार अंगो मे जाने से पहले रक्त दो बार हृदय में आता है इसलिए इसे दोहरा
परिसंचरण कहते है।
(ग)
रूधिर वाहिनियां
(1) धमनियां - वे वाहिनियां जो रूधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न अंगों तक ले जाती है,
धमनियां कहलाती हैं। इसकी दीवार मोटी व लचीली होती है। क्योंकि
इसमें रूधिर हुत दाब से बहता है। इसमें सामान्यतः शुद्ध या ऑक्सीजनित रूधिर
प्रवाहित होता है। फुफ्फुसीय धमनियों में अशुद्ध या आक्सीजन रहित रक्त प्रवाहित
होता है।
(2) शिराएं - ये रूधिर को शरीर के विभिन्न भागों से एकत्रित करके हृदय में लाती है,
शिराएं कहलाती है। इनकी दीवारें पतली एवं पिचकने वाली होती है। शिराओं
की गुहा चौड़ी होती है क्योंकि इसमें रूधिर का दाब कम होता है। इसमें सामान्यतः
अशुद्ध या ऑक्सीजन रहित रूधिर प्रवाहित होता है। फुफ्फुसीय शिराओं में शुद्ध या
ऑक्सीजनित रक्त प्रवाहित होता है।
(3) केशिकाएँ (Capillaries)
: सबसे पतली वाहिनियां जो धमनी और शिरा को जोड़ने का कार्य करती है।
धमनी एंव शिराओं मे अन्तर
धमनी
|
शिरा
| ||
1
|
हृदय से अंगो तक रक्त को पहुंचाती है
|
1
|
अंगो से हृदय तक रक्त को पहुँचाती है।
|
2
|
इसमे रक्त दाब अधिक होता है।
|
2
|
इसमें रक्त दाब कम होता है।
|
3
|
इसकी दीवारे माटी तथा लचीली होती है।
|
3
|
इसकी दीवारे कम मोटी तथा कम लचीली होती है
|
4
|
इसमे वाल्व नहीं पाये जाते है।
|
4
|
इसमे वाल्व पाये जाते है।
|
विशेष:- धमनी की दीवारे शिरा की अपेक्षा मोटी होती है क्यो कि धमनी मे रक्त अधिक दाब से होता है।
रूधिर दाब (Blood pressure)
रूधिर वाहिकाओं की भित्ति के विरूद्ध
जो दाब लगता है उसे रक्तदाब कहते हैं। यह दाब शिराओं की अपेक्षा धमनियों में बहुत
अधिक होता है। हृदय के संकुचन से जो दाब उत्पन्न होता है वह दाब रूधिर को धमनियों
में आगे बढ़ाता है। धमनी के अन्दर रूधिर का दाब निलय प्रकुंचन (संकुचन) के दौरान
प्रकुंचन दाब तथा निलय अनुशिथिलन (शिथिलन) के दौरान धमनी के अन्दर का दाब
अनुशिथिलन दाब कहलाता है। सामान्य मानव शरीर में प्रकुंचन दाब 120 mm तथा अनुशिथिलन दाब लगभग 80 mm होता है।
रक्तदाब स्पफाईग्मोमैनोमीटर नामक
यंत्र से नापा जाता है। उच्च रक्तदाब को अति तनाव भी कहते हैं और इसका कारण धमनियों
का सिकुड़ना है, इससे रक्त प्रवाह में प्रतिरोध् बढ़ जाता है। इससे धमनी फट
सकती है तथा आंतरिक रक्तस्रवण हो सकता है।
(ii) लसिका तंत्र (Lymph
System)
रूधिर जब केशिकाओं में प्रवाहित होता
है तो उसके छन कर जो द्रव्य बनता है लसिका (Lymph) कहलाता है। लसिका का
संगठन प्लाज्मा के लगभग समान होता है पर पदार्थों की सान्द्रता भिन्न होती है।
·
लसिका द्रव अन्तर कोशिकिय स्थलों में परिसंचरण
करता है।
·
लसीकाणु (Lymphocytes) नामक कोशिकाएं
लसीका में होती हैं। ये रोगाणुओं को खा जाती
है और शरीर में संक्रमण को होने से रोकती हैं।
·
यह प्रोटीनों और तरल को परिसंचरण से ऊतकों तक
वापस पहुंचाती हैं।
पादपों में परिवहन
1.
जल का परिवहन
2.
भोजन तथा दूसरे पदार्थों का स्थानांतरण
जल का परिवहन
पादपों में जल और खनिज लवण का वहन
शरीर निर्माण के लिए बहुत आवश्यक है, जो निम्न प्रकार से होता है।
पौधों में जाइलम या वाल ऊतक द्वारा जल जड़ों से पौधे के विभिन्न भागों तक पहुंचाया
जाता है। पौधों की जड़ों पर धागेनुमा संरचनाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें मूलरोम कहते हैं। ये मूलरोम मिट्टी के कणों के बीच उपस्थित जल एवं
खनिज लवणों के विलयन के सीधे सम्पर्क में होते हैं। मूलरोम के जीव-द्रव्य में जल
की सान्द्रता, मिट्टी के कणों के बीच उपस्थित जल की
सान्द्रता से कम होती है। सान्द्रता में अन्तर के कारण, परासरण
विधि द्वारा जल एवं खनिज लवण विलयन मूलरोम में चले जाते है। इसी प्रकार मूलरोम से
कॉर्टेक्स तथा कॉर्टेक्स से जाइलम वाहिकाओं में पहुँच जाते हैं, जो वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्पन्न खिंचाव बल के द्वारा पत्तों तथा अन्य
भागों तक पहुंचा दिए जाते हैं।
भोजन तथा दूसरे
पदार्थों का स्थानांतरण
पादपों की पत्तियों प्रकाश संश्लेषण
द्वारा भोजन तैयार करती हैं। फ्लोएम ऊतक इस तैयार भोजन को पौधे के विभिन्न भागों
तक पहुँचाता है। इसके अतिरिक्त फ्लोएम अमीनों अम्ल तथा अन्य पदार्थों का परिवहन भी
करता है। ये पदार्थ विशेष रूप से जड़ के भंडारण अंगों, फलों,
बीजों तथा वृद्धि. वाले अंगों में ले जाए जाते हैं। भोजन तथा अन्य
पदार्थों का स्थानांतरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चालनी नलिका में उपरिमुखी
तथा अधोमुखी दोनों दिशाओं में होता है। फ्लोएम द्वारा स्थानान्तरण जाइलम से विपरीत
होता है, जो ऊर्जा के उपयोग से पूरा होता है। सुक्रोज फ्लोएम
ऊतक में ए.टी.पी. से प्राप्त ऊर्जा से ही स्थानांतरित होते हैं। ये फ्लोएम को पादप
की आवश्यकतानुसार पदार्थों का स्थानांतरण करता है।
NCERT प्रश्न-उत्तर पेज न॰ -122
प्रश्न 1. मानव
में वहन तंत्र के घटक कौन-से हैं? इन घटकों के क्या कार्य
हैं?
उत्तर- मानव में वहन तंत्र के मुख्य
घटक निम्नलिखित हैं- . (a) रूधिर (b) लसीका (c)
रक्त वाहिकाएँ (d) हृदय
प्रश्न 2. स्तनधारी तथा पक्षियों में
ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को अलग करना क्यों आवश्यक है? उत्तर-
स्तनधारी तथा पक्षी दोनों ही क्रियाशील जन्तु हैं। इन्हें अपने शरीर का तापक्रम
बनाए रखने के लिए निरंतर ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा अपने शरीर के विभिन्न कार्यों
के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अधिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए उन्हें
ऑक्सीजन की आवश्यकता भी अधिक होती है। यह तभी संभव है जब ऑक्सीजनित और विऑक्सीजनित
रुधिर को हृदय के दाएँ और बाएँ भाग से आपस में मिलने से रोक दिया जाए।
प्रश्न 3. उच्च
संगठित पादप में बहन तंत्र के घटक क्या हैं? .
उत्तर- उच्च संगठित पादपों में वहन
तंत्र के मुख्य दो घटक हैं
(i) जाइलम. (दारू) (ii)
फ्लोएम (पोषवाह)
(1) जाइलम (दारू)-पादपों में जाइलम ऊत्तक जड़ द्वारा अवशोषित जल व खनिज लवणों को पौधे के
अन्य - भागों तक पहुंचाता है। यह कार्य जाइलम वाहिकाओं के माध्यम से होता है। यह
पौधे के. ताप के नियमन .. में भी सहायक होता है।
(ii) पलोएम (पोषवाह)-यह ऊतक पत्तियों द्वारा तैयार भोजन तथा तने की चोटी में संश्लेषित
हार्मोनों को पौधे के अन्य भागों को स्थानान्तरित करता है जहाँ इनकी आवश्यकता होती
है।
4. पादप में जल और खनिज लवण का
वहन कैसे होता है?
5. पादप में भोजन का
स्थानांतरण कैसे होता है?
उत्सर्जन (Excretion)
शरीर की कोशिकाओं में अनेक प्रकार की
रासायनिक अभिक्रियाएं होती हैं। इन रासायनिक अभिक्रियाओं के कुछ उत्पादों जैसे
यूरिया,
यूरिक एसिड व अमोनिया का निर्माण होता है जिनकी शरीर को आवश्यकता
नहीं होती। तथा जिनकी उपस्थिति शरीर के लिए हानिकारक होती है ऐसे उत्पादों को
अपशिष्ट पदार्थ (Waste product) कहते हैं। शरीर से इन
पदार्थों को बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं।
वे अंग जो उत्सर्जन क्रिया में भाग
लेते हैं उत्सर्जी अंग कहते हैं।
मनुष्य में उत्सर्जन
उत्सर्जन तंत्र शरीर के अपशिष्ट
पदार्थों का संग्रह तथा निष्कासन करता है। उत्सर्जन तंत्र के प्रमुख अंग निम्न है।
(1) वृक्क (Kidney), (2) मूत्रवाहिनियां (Ureter),
(3) मूत्राशय (Urinary bladder) 4. मूत्रमार्ग
(1) वृक्क : मानव शरीर में सेम के बीज की आकृति वाले दो वृक्क रीढ़ की हड्डी के
दोनों ओर पेट के पिछले भाग में होते हैं। रीनल धमनी अशुद्ध रक्त वृक्क में लाती
है। वृक्क की लाखों नेफ्रॉन इस रक्त को साफ करती हैं। शुद्ध रक्त रीनल. शिरा
द्वारा वापस शरीर को भेज दिया जाता है। व्यर्थ पदार्थ मूत्रवाहिनी के रास्ते
मूत्राशय में पहुंच जाते हैं।
(2) मूत्रवाहिनियां (Ureter):
ये वृक्क से निकल कर मूत्राशय तक जाती हैं। इसकी भित्ति में
कमाकुंचन पाया जाता है,जिसके फलस्वरूप मूत्र आगे की ओर बढता
है।
3.मूत्राशयः- यह उदर के पिछले भाग में स्थित होता है,मूत्राशय
मे मूत्रवाहिनियां आकर खुलती है व इससे मूत्र को संग्रहित किया जाता है।
4.मूत्रमार्गः- मूत्राशय का पश्च भाग सकरा हो कर एक पतली नलिका में परिवर्तित हो जाता
है जिसे मूत्र मार्ग कहते है।
वृक्काणु या नेफ्रॉन
मानव में उत्सर्जन का प्रमुख अंग
वृक्क है। प्रत्येक वृक्क में उत्सर्जन के लिए लाखों छोटी यूनिट लगी होती हैं, जिन्हें
नेफ्रॉन या वृक्क नलिका कहते हैं। नेफ्रॉन का ऊपरी सिरा एक कप के आकार का होता है,
इसे बोमन संपुट कहते हैं। इसमें केशिकाओं (capilaries) का एक गुच्छा होता है, अतः यह कोशिका गुच्छ कहलाता
है। बोमन संपुट नेफ्रॉन का प्रवेश द्वार है। अशुद्ध रक्त वृक्क धमनी द्वारा धमनिका
से होता हुआ कोशिका गुच्छ में पहुंचता है। कोशिका गुच्छ की केशिकाओं से छनकर रक्त
का तरल भाग बोमन संपुट में पहुँचता है। यह तरल पदार्थ वृक्क नलिका में बहता है।
इसी दौरान इसमें उपस्थित ग्लूकोज़, अमीनो अम्ल आदि उपयोगी
पदार्थ कोशिका जाल द्वारा पुनः अवशोषित कर लिए जाते हैं। अपशिष्ट पदार्थ युक्त तरल
संग्राही नली में भेज दिया जाता है। यहाँ से यह मूत्र नलिका द्वारा मूत्राशय में
भेज दिया जाता है और समय-समय पर मूत्रमार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता
है।
वृक्क का खराब होना, डायलिसिस
और वृक्क रोपण : कुछ रोगों के कारण अथवा कभी-कभी कोई
दुर्घटना होने के कारण वक्क क्षतिग्रस्त हो जाते हैं क्योंकि प्रत्येक वृक्क में
नेफ्रानों की संख्या दस लाख से भी अधिक होती है। एक व्यक्ति केवल एक वृक्क के
सहारे भी जीवित रह सकता है। हालांकि दोनों वृक्कों के खराब होने की स्थिति में
जीवित रह पाना असंभव है। आधुनिक तकनीक के कारण अब नई-नई तकनीकों, जैसे
डायलिसिस (Dialysis) और वृक्कारोपण (Kidney
transplant) से, ऐसे रोगियों के जीवन रक्षा की
जा सकती है।
कृत्रिम वृक्क या डायलिसिस
(Dialysis)
: कृत्रिम वृक्क का काम करने का तरीका निम्न चित्र में दिखाया गया है। एक
नली रोगी की भुजा अथवा टांग की धमनी में डाल दी जाती है। इस नली के दूसरे सिरे को
वृक्क मशीन से जोड़ा जाता है। प्लास्टिक की इस नली के भीतर दो झिल्लियाँ इस प्रकार
लगी होती है कि एक नली इसी नली के भीतर स्थित होती है। भीतरी नली से होकर रोगी की
धमनी का रूधिर बहता है। यह रूधिर बाहरी नली में भरे डायलिसिस तरल से घिरा होता है।
बाहरी और भीतरी नली के बीच, भीतरी नली की झिल्ली है जो दोनों
को अलग बनाए रखती है। रूधिर के अपशिष्ट पदार्थ उस तरल में आ जाते हैं। रूधिर
जिसमें से अब अपशिष्ट पदार्थ निकल गए हैं, वापस वृक्क मशीन
से टांग अथवा भुजा की शिरा में पहुंच जाता है और वहाँ से फिर शरीर के भीतर पहंच
जाता है। डायलिसिस तरल जिसमें अपशिष्ट पदार्थ मौजूद होते हैं, मशीन में से बाहर निकाल दिया जाता है। उस तकनीक को डायलिसिस (Dialysis)
कहते हैं।
वृक्कारोपण (Kidney transplant) : चिकित्सक
इन दिनों में, बीमार व्यक्ति से क्रियाहीन वृक्क को निकलकर
उसके स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा दान किए गए वृक्क को प्रत्यारोपित कर
सकता है। सिर्फ इतना ध्यान रखना पड़ता है कि प्रदाता द्वारा दिया गया वृक्क
प्राप्त के शरीर द्वारा अपनाया गया है।
अन्य अंग जो शरीर से
अपशिष्ट बाहर निकालते हैं
वृक्कों के अतिरिक्त फेफड़ें, त्वचा
और यकृत भी अपशिष्टों को बाहर निकालते हैं। त्वचा में स्थित स्वेद-ग्रंथियाँ लवणों
की अतिरिक्त मात्रा को उस समय बाहर निकलती हैं जब हमें पसीना आता है। फेफड़े कार्बन
डाईऑक्साइड बाहर निकालते हैं ।
पादप में उत्सर्जन
पादपों में उत्सर्जी उत्पाद, कार्बन
डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, जलवाष्प, रेजिन, गोंद, लेटक्स आदि होते
हैं। इन उत्सर्जी पदार्थों का उत्सर्जन भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है।
(i)
पादप दिन के समय CO2, प्रकाश संश्लेषण में प्रयुक्त करके O2, को
उत्पादित करते हैं, जो वे वायुमंडल में मुक्त कर देते हैं।
(ii)
रात्रि के समय पादप O2, मुक्त न करके CO2, मुक्त करते हैं।
(iii)
पादप अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन क्रिया
द्वारा वायु में निर्मक्त कर देते हैं।
(iv)
कुछ पादपं व्यर्थ पदार्थ पत्तियों में
एकत्रित कर लेते हैं, जो बाद में गिर जाती हैं।
(v)
कुछ उत्सर्जी पदार्थ गोंद के रूप में पुराने
जाइलम ऊतक में एकत्रित हो जाते हैं। ..
प्रश्न: मूत्र बनने
की मात्रा का नियमन किस प्रकार होता है?
उत्तर: मूत्र बनने की मात्रा इस
प्रकार नियंत्रित की जाती है ताकि शरीर में जल का संतुलन बना रहे।
(i)
सर्दियों में शरीर से पसीना न आने के कारण
हमारे द्वारा पिए गए पानी का उत्सर्जन जरूरी हो जाता है। रक्त से पानी को दोबारा
अवशोषित नहीं किया जाता, बल्कि इसे मूत्र के रूप में उत्सर्जित कर दिया
जाता है, जिससे सर्दियों में मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है।
(ii)
गर्मियों में पसीने के कारण शरीर से पानी की
हानि हो जाती है। इससे मूत्र में पानी को कम करने की जरूरत होती है ताकि शरीर में
पानी की कमी न हो। इसीलिए वृक्काणु के विभिन्न भाग जल को दुबारा अवशोषित कर लेते
हैं, जिससे गर्मियों में मत्र की मात्रा घट जाती है।
1. मनुष्य में वृक्क एक तंत्र
का भाग है जो संबंधित है
(a)
पोषण
(b) श्वसन
(c)
उत्सर्जन
(d) परिवहन
2.
पादप में जाइलम उत्तरदायी है
(a)
जल का वहन
(b) भोजन का वहन
(c)
अमीनो अम्ल का वहन
(d) ऑक्सीजन का वहन
3.
स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक है
(a)
कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल
(b) क्लोरोफिल
(c)
सूर्य का प्रकाश
(d) उपरोक्त सभी
4. पायरुवेट के विखंडन से यह कार्बन डाइऑक्साइड, जल
तथा ऊर्जा देता है और यह क्रिया होती है
(a)
कोशिकाद्रव्य
(b) माइटोकॉन्ड्रिया
(c)
हरित लवक
(d) केंद्रक
5. हमारे शरीर में वसा का पाचन कैसे होता है? यह
प्रक्रम कहाँ होता है?
6. भोजन के पाचन में लार की क्या भूमिका है?
7. स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ कौन सी हैं और उसके उपोत्पाद
क्या हैं?
8. वायवीय तथा अवायवीय श्वसन में क्या अंतर हैं? कुछ
जीवों के नाम लिखिए जिनमें अवायवीय श्वसन होता है।
9. गैसों के अधिकतम विनिमय के लिए कूपिकाएँ किस प्रकार अभिकल्पित हैं?
10. हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी के क्या परिणाम हो सकते हैं?
11. मनुष्य में दोहरा परिसंचरण की व्याख्या कीजिए। यह क्यों आवश्यक है?
12. जाइलम तथा फ्लोएम में पदार्थों के वहन में क्या अंतर है?
13. फुफ्फुस में कूपिकाओं की तथा वृक्क में वृक्काणु (नेफ्रान) की रचना तथा
क्रियाविधि की तुलना कीजिए।
Comments
ka fast revision karaye
Sir please please